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मकान मालिक किराया मांग रहा था, हमने कहा लॉकडाउन खुले तो दे देंगे, नहीं भेज पाए तो ताला तोड़कर हमारा सामान बेच दिया

सुबह के आठ बज रहे हैं। नोएडा स्थित लेबर चौक पर बड़ी संख्या में आदमी और औरतें जमा हैं। महिलाएं छोटे-छोटे झुंड में बैठी हैं। अधेड़ उम्र के ज्यादातर आदमी पास की दीवार से टिक कर खड़े हैं। वहीं नौजवान इधर से उधर टहल रहे हैं। यहां मौजूद सभी में जो एक चीज एक जैसी है वो है - गमछा। किसी ने इसे मास्क की तरह मुंह पर लपेट रखा है। कुछ के माथे पर मुरेठे सा बंधा है तो कइयों ने इसे कमर पर कस रखा है। सड़क पार करके अभी उनकी ओर पहुंचे ही थे कि सामने से आते एक बीस-बाईस साल के नौजवान ने अपने गमछे को कंधे से हटाकर कमर पर कसते हुए पूछा, ‘किस काम के लिए लेबर खोज रहे हैं?’

‘लेबर नहीं चाहिए। आपका क्या नाम है और कहां के रहने वाले हैं?’ इस सवाल से नौजवान को निराशा हुई। सवाल सुनकर वो आगे बढ़ गया और जाते-जाते केवल इतना बोला, ‘नाम बताकर क्या फायदा होगा? आज की दिहाड़ी बनेगी? नहीं ना? तो रहने दीजिए।’ नौजवान का ये सवाल सिर्फ उसका नहीं, यहां मौजूद हर मजदूर का है। उन्हें केवल उस व्यक्ति की तलाश है जो काम और दिहाड़ी दे सके।

सोचा था लॉकडाउन के बाद जब वापस लौटेंगे तो काम होगा, लेकिन जब यहां आए तो काम ही नहीं मिल रहा। अब तो खर्चा चलाना भी मुश्किल हो रहा है।

हमसे थोड़ी दूर पर खड़े होकर चाय पी रहे बेचन इस पूरे घटनाक्रम को देख रहे थे। बेचन बिहार के रहने वाले हैं। राजमिस्त्री का काम करते हैं और यहां पिछले दस साल से आ रहे हैं। लॉकडाउन लगा तो बड़ी संख्या में मजदूरों ने अपने गांव-घर की तरफ पलायन किया था। बेचन भी गए थे, लेकिन छपरा में काम नहीं मिला तो यहां लौट आए। आ तो गए लेकिन काम नहीं मिलने से निराश हैं। कहते हैं, ‘वो लड़का जो आपको बोल के गया। उसका बुरा नहीं मानिएगा। सबका दिमाग खराब है। यहां खड़ा हर आदमी लॉकडाउन में जैसे-तैसे गांव भागा। वहां कमाई-धमाई नहीं दिखा तो कुछ दिन रुका फिर लौटकर आ गया। यहां का हाल देखकर उसे समझ नहीं आ रहा कि करना क्या है?’

बेचन को अपने गांव से लौटे हुए दस दिन हो गए हैं। इन दस दिनों में केवल दो दिन काम मिला है। दो बच्चे और पत्नी गांव में रहते हैं। यहां वो एक कमरे में दो लोग रहते हैं। कमरे का किराया चार हजार है। वो कहते हैं, ‘एक दिन की दिहाड़ी चार सौ बनती है। लॉकडाउन से पहले बहुत खराब होने पर भी महीने में बीस दिन काम मिल ही जाता था। महीने के आठ हजार बन जाते थे। दो हजार कमरे का किराया। एक हजार रुपया खोराकी (खाना-पीना) हटा दें, तब भी पांच हजार घर भेज देते थे। इस कोरोना और लॉकडाउन ने हम गरीबों को मार दिया। काम है नहीं। मकान मालिक किराए का एक पैसा माफ करने के लिए तैयार नहीं है। समझ नहीं आ रहा कि आगे के दिन कैसे कटेंगे।’

सुबह होते ही मजदूर नोएडा के लेबर चौक पर इकट्‌ठे हो जाते हैं। सारा दिन यहीं बैठे-बैठे निकल जाता है। शाम होते ही बिना कुछ कमाए घर लौट जाते हैं।

काम ना मिलने के अलावा इनकी सबसे बड़ी एक और ही समस्या है, हर महीने लगने वाला मकान भाड़ा और किसी भी स्थिति में किराया वसूल करने का मन बना चुके मकान मालिकों का इनके प्रति रवैया। गौड़ा, राजस्थान की रहने वाली हैं। लॉकडाउन से पहले दिल्ली में सराय काले खां इलाके में किराए का एक कमरा लेकर रहती थीं। अब नोएडा के खोड़ा गांव में डेरा है। लॉकडाउन की घोषणा होने के बाद वो, उनके पति और इकलौती बेटी राजस्थान लौट गए थे। दो महीने बाद ही दिल्ली से उनके मकान मालिक का फोन गया कि उनके कमरे का ताला तोड़कर उनका सारा सामान बेच दिया है।

वो बताती हैं, ‘मकान मालिक किराया मांग रहा था। हमने कहा कि लॉकडाउन खुल जाए तो वहां आकर कमाएंगे और दे देंगे। लेकिन वो कह रहे थे कि वहीं से भेजो। हम भेज नहीं पाए तो ताला तोड़कर हमारा सारा सामान बेच दिया। लौटकर आए और वहां गए तो भगा दिया। सामान भी नहीं दिया। तभी इधर रह रहे हैं।’

गोरखपुर के रहने वाले मोहम्मद अशरफ माल ढुलाई, लोडिंग या अनलोडिंग जैसा कोई भी काम कर लेते हैं। बाकियों की तरह वो भी लॉकडाउन लगने पर गोरखपुर लौट गए थे, लेकिन जब वहां कोई काम नहीं दिखा तो पिछले महीने की 22 तारीख को नोएडा लौट आए। अशरफ बताते हैं, ‘जब से आए हैं तब से केवल पांच दिन काम मिला है। पूरे महीने में पांच दिन काम किए हैं। मकान मालिक 6 महीने का किराया मांग रहे हैं। यहां खर्च चलना भी मुश्किल है। मकान भाड़ा कम से कम सरकार को माफ करवाना चाहिए।’

24 मार्च की रात से जब देश में टोटल लॉकडाउन लगा, तो उसके अगले दिन से ही प्रवासी मजदूर पैदल ही घर की तरफ निकल पड़े थे।

वैसे तो केंद्रीय गृह मंत्रालय की तरफ से 29 मार्च को एक आदेश जारी किया गया था, जिसमें कहा गया था कि मकान मालिक लॉकडाउन के दौरान एक महीने तक छात्रों, कामगारों और प्रवासी मजदूरों से किराया ना लें और ना ही उनपर घर खाली करने का दबाव बनाएं। इस आदेश पर ना मकान मालिकों ने अमल किया और ना ही सरकार ने इसे लेकर कोई सख्ती दिखाई।

ये परेशानियां, उलझने और पेशोपेश की स्थिति केवल इस लेबर चौक पर खड़े मजदूरों की नहीं है। कोरोनावायरस की वजह से लगे लॉकडाउन और इसकी वजह से बंद हुए काम-धंधों की वजह से बड़ी संख्या में कामगार बेरोजगार हुए हैं। चोट तो नौकरीपेशा लोगों पर भी पड़ी है, लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित वो तबका हुआ है जो दिहाड़ी के सहारे अपना जीवन व्यतीत कर रहा है।

2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले श्रमिकों की कुल संख्या 45.36 करोड़ थी। अनुमान है कि अब ये संख्या 50 करोड़ से भी ज्यादा है। इतनी बड़ी आबादी पर लॉक डाउन का क्या असर रहा? इसकी जानकारी के लिए फिलहाल सरकार की तरफ से कोई आंकड़ा जारी नहीं किया गया है।

इस सेक्टर में भारत के 90 फीसदी कर्मचारी आते हैं। इसी से झुग्गियों में रहने वाले भारत के 88 लाख परिवारों का गुजारा होता है। घर में काम करने वाली बाई, प्लंबर, इलेक्ट्रिशियन, रिक्शा चालक, सड़क के किनारे रेहड़ी लगाने वाले सहित ऐसे कई कामगार हैं, जो प्रति दिन 150 रुपए से भी कम कमाते हैं।

सरकार के पास इस बात का कोई डेटा नहीं है कि देश में कितने प्रवासी मजदूर हैं। बस एक अनुमान है कि देशभर में 50 करोड़ के आसपास प्रवासी मजदूर होंगे।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, केंद्र सरकार कोरोनावायरस महामारी की वजह से प्रभावित प्रवासी मजदूरों को लेकर एक देशव्यापी सर्वे करने जा रही है। इसका उद्देश्य है कि प्रवासी मजदूरों के लिए एक केंद्रीय डेटाबेस बनाया जाए। यह सर्वे अगले 6 से 9 महीने में पूरा कर लिया जाएगा। आधिकारिक तौर से तो तभी पता चल सकेगा कि लॉकडाउन का इनपर कितना और कैसे प्रभाव पड़ा।

लेकिन निजी क्षेत्र के एक प्रमुख थिंक टैंक सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी की तरफ से हाल ही में जारी रिपोर्ट के मुताबिक, अप्रैल में 12 करोड़ 20 लाख लोग बेरोजगार हो गए हैं। इसमें से 9.12 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे थे। वहीं अप्रैल से लेकर जुलाई तक लगभग 1.9 करोड़ ऐसे लोग बेरोजगार हुए जिन्हें सैलरी मिलती थी। संस्था का दावा है कि इन लोगों को दोबारा नौकरी मिलने में बहुत दिक्कत होगी।

इसी संस्था के मुताबिक अनलॉकिंग की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूरों की स्थिति में सुधार दिखा है। इसके बाद भी आज असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लगभग 68 लाख बेरोजगार हैं।

इसी रिपोर्ट में कहा गया कि लॉकडाउन से दिहाड़ी मजदूरों और छोटे व्यवसायों से जुड़े लोगों को भारी झटका लगा है। इनमें फेरीवाले, सड़क के किनारे दुकान लगाने वाले विक्रेता, निर्माण उद्योग में काम करने वाले श्रमिक और रिक्शा चलाकर पेट भरने वाले लोग शामिल हैं।

कोरोनावायरस और लॉकडाउन का सबसे ज्यादा असर प्रवासी मजदूरों पर ही पड़ा है। क्योंकि इनका न सिर्फ काम बंद हुआ, बल्कि कमाई भी छीन गई।

बिहार के रहने वाले यहां ठेले पर खाने-पीने का सामान बेचते हैं। चूंकि इनके ग्राहक यही दिहाड़ी मजदूर हैं जो खुद काम खोज रहे हैं और पैसे-पैसे के लिए मोहताज हैं तो इसका असर छोटे को होने वाली कमाई पर पड़ना लाजमी है। वो कहते हैं, ‘इस कोरोना ने सबके हाथ में कटोरा पकड़ा दिया है। अब स्थिति में अगर मैं मदद के लिए आपकी तरफ कटोरा बढ़ाता हूं तो सामने से आप अपना कटोरा मेरी तरफ बढ़ा देते हो। सब एक झटके में जरूरतमंद हो गए हैं।’

घड़ी के मुताबिक ग्यारह बज चुके हैं। धूप तेज हो चुकी है। धूप से बचने के लिए मजदूर दीवार से सट गए हैं। चूंकी जिस दीवार से सटकर वो खड़े हैं वो भी एक प्राइवेट कंपनी की है तो थोड़ी-थोड़ी देर पर उस कम्पनी का निजी सुरक्षा गार्ड आता है और उनसे गेट छोड़कर खड़ा होने के लिए कह जाता है। कुछ मजदूर थोड़ी दूर पर खड़े पेड़ के नीचे जमा हो गए हैं। इस बीच तीन मोटर साइकलें आई हैं जिस पर दो-दो मजदूर बैठकर गए हैं। सड़क पर खड़े होकर घंटों काम का इंतजार करने वाले इन मजदूरों के चेहरे पर थकान और निराशा का मिला जुला भाव तो रहता ही है लेकिन जैसे ही मोटर साइकल पर बैठने का मौका मिलता है उनके चेहरे खिल उठते हैं। सारी थकान। सारी निराशा और सारा दुःख एक दिन के लिए ही सही लेकिन गायब हो गया है।



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Noida Coronavirus News Update | Noida Labour Chowk Ground Report; Rajasthan Bihar Migrants Worker Speaks To Dainik Bhaskar Over Coronavirus Lockdown


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