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गांधी ‘हिन्दू’ और ‘देशभक्त’ थे पर ‘हिन्दू देशभक्त’ नहीं थे; उनके नाम और छवि को अपनाया जा रहा है, सीख या मूल्यों को नहीं

श्री मोहन भागवत से मिलने का सौभाग्य मुझे अब तक नहीं मिला, लेकिन वे मुझे बहस के मुद्दे देते रहे हैं। फिर वह ‘हिन्दू राष्ट्र’ की उनकी अवधारणा हो या ‘अनेकता में एकता’ के मेरे और ‘एकता में अनेकता’ के उनके विचार के बीच मतभेद हो। हाल ही में उन्होंने फिर ऐसा ही कुछ कहा। उन्होंने नए साल की शुरुआत में एक कार्यक्रम में कहा, ‘अगर कोई हिन्दू है, तो वह देशभक्त होगा ही। यह उसका आधारभूत गुण और प्रकृति होगी।

हिन्दू कभी भारत-विरोधी हो ही नहीं सकता।’ आरएसएस प्रमुख भागवत ‘मेकिंग ऑफ अ हिन्दू पैट्रिअट: बैकग्राउंड ऑफ गांधीजीस हिन्द स्वराज’ पुस्तक के विमोचन पर बोल रहे थे। यहां वे इस बात पर सतर्क दिखे कि कोई यह न कहे कि वे यह विमोचन आरएसएस द्वारा उन महात्मा गांधी को अपनाने के प्रयासों के तहत कर रहे हैं, जिन्हें वे छह दशकों तक बुरा बताते रहे हैं। श्री भागवत ने कहा कि ऐसे कयासों की जरूरत नहीं है कि वे ‘गांधीजी को अपनाने या सही ठहराने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि उन जैसी महान शख्सियत के साथ ऐसा नहीं किया जा सकता।’

हिन्दुत्व आंदोलन वास्तव में महात्मा को अपनाने की कोशिश कर रहा है। कभी कई आरएसएस शाखाओं ने गांधी की हत्या की खबरों पर मिठाई बांटी थी। श्री भागवत के पूर्ववर्ती एमएस गोलवलकर विशेष तौर पर गांधी की अहिंसा की सीख और अंतर-धार्मिक एकता के विचार की अवमानना में काफी सख्त थे। लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर पुनर्विचार करना पड़ा। क्या आरएसएस का समर्थन प्राप्त सरकार ऐसी शख्सियत की उपेक्षा कर सकती है, जिसे सार्वभौमिक रूप से पसंद किया जाता हो? क्या इसकी वजह से हिन्दुत्व आंदोलन की चमक कम नहीं होगी?

इसीलिए महात्मा के नाम और छवि को अपनाया जा रहा है, उनकी सीख या मूल्यों को नहीं। श्री भागवत के शब्दकोष में अहिंसा या ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ की कोई जगह नहीं है, लेकिन स्वच्छ भारत अभियान में महात्मा के चश्मों का इस्तेमाल किया जा सकता है। महात्मा गांधी में ‘हिन्दू राष्ट्रभक्ति’ तलाशना इसी प्रयास का हिस्सा है।

महात्मा एक गौरवान्वित हिन्दू थे, लेकिन हिन्दू धर्म के जिन तत्वों पर उन्हें गर्व था, वे संघ परिवार जैसे नहीं थे। स्वामी विवेकानंद की तरह वे हिन्दू धर्म की सबको अपनाने की आध्यात्मिक सच्चाई को मानते थे। महात्मा गांधी हिन्दू थे और देशभक्त थे, लेकिन वे कभी खुद को ‘हिन्दू देशभक्त’ नहीं कहते। आरएसएस प्रमुख ने तर्क दिया कि गांधी जी का ‘स्वराज’ के लिए संघर्ष समाज की सभ्यता के मूल्यों पर आधारित पुनर्रचना के लिए था, जिससे उनका मतलब हिन्दू धर्म से था।

वास्तव में महात्मा गांधी भारतीय सभ्यता को एक मिश्रण के रूप में देखते थे, जो वेद और पुराणों के दौर से ही विभिन्न गैर-हिन्दू प्रभावों को अपनाता रहा है, जो कि संघ परिवार की ज्ञान सीमा से बाहर है। लेकिन मुझे आरएसएस प्रमुख की इस बात पर आपत्ति है कि हिन्दू धर्म और देशभक्ति पर्यायवाची हैं।

अंग्रेजों से आजादी पाने के संघर्ष को प्रेरित करने वाले राष्ट्रवाद की जड़ें भारत की सभ्यता की उस परंपरा में निहित थीं, जिसमें समावेशिता, सामाजिक न्याय और धार्मिक सहिष्णुता शामिल थी। संविधान में स्थापित राष्ट्रवाद ऐसा समाज दर्शाता है जो हर व्यक्ति को आगे बढ़ने देतेा है, फिर वह किसी भी जाति, धर्म, भाषा या जन्मस्थान से जुड़ा हो। इसे आज वह नया कथानक चुनौती दे रहा है, जो भारत की मूल अवधारणा का ही विरोधी है और असमावेशी, आक्रामक राष्ट्रवाद के सहारे बढ़ता है, जो इस सांस्कृतिक पहचान पर आधारित है कि भारत ‘हिन्दू राष्ट्र’ है।

इस प्रक्रिया में ‘देशभक्ति’ की अवधारणा को श्री भागवत और उनके सहयोगी पुन: परिभाषित कर रहे हैं। मुझे लगता है कि ‘देशभक्ति’ देश को प्रेम करने के बारे में है, क्योंकि यह आपका है और आप इसके हैं। जबकि श्री भागवत की देशभक्ति इस विजन पर आधारित है कि यह केवल हिन्दुओं में ही स्वाभाविक तौर पर होती है।

हिन्दू धर्म इसे मानने वाले हर व्यक्ति का निजी मामला है। वहीं हिन्दुत्व एक राजनीतिक सिद्धांत है जो गांधीजी की हिन्दू धर्म की समझ के आधारभूत सिद्धांतों से अलग है। जहां हिन्दू धर्म पूजा के सभी तरीकों को शामिल करता है, हिन्दुत्व भक्ति भाव को नहीं मानता और मुख्यत: पहचान की परवाह करता है। सांप्रदायिक पहचान के प्रति यह जुनून भारत को बांटता है और यही देशभक्त न होना है।

यह धर्मनिरपेक्षता और मतभेदों को स्वीकार करने के गांधीवादी, नेहरुवादी और अम्बेडकरवादी सिद्धांत ही थे, जो हमारे संविधान में दिखते हैं। वहीं हिन्दुत्व पूरी तरह से राजनीतिक विचारधारा है जो हिन्दू धर्म को कट्टरता की ओर ले जाती है। इन विचारों के मौजूदा राजनीतिक दबदबे का मतलब यह नहीं है कि गांधीवादी हिन्दू धर्म लुप्त हो गया है। अभी भी बहुत सारे भारतीय हैं जो इन मूल्यों को बचाने के लिए लड़ रहे हैं। इस प्रक्रिया में हमें गांधी को अपनाने या सही ठहराने की जरूरत नहीं है, बस उनका अनुसरण करना है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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शशि थरूर, पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद


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